यारबाज़ - 1 Vikram Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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यारबाज़ - 1

यारबाज़

विक्रम सिंह

(1)

उन तमाम बेरोजगार वह कलाकार साथियों को जो अपनी मंजिल ना पा सके जिसके वे हकदार थे

युवा कथाकार विक्रम सिंह ने हाल‌ के वर्षों में हिंदी कहानी लेखन में अपनी एक सशक्त पहचान कायम की है। यह बहुत खुशी की बात है कि वे मुंजाल शोवा कंपनी से जुड़े हुए हैं अौर कंपनी में अपने दायित्वों का बखूबी निर्वाह करते हुए साहित्य रचना के माध्यम से भी समाज को दिशा देने का प्रयास कर रहे हैं। वे कथा लेखन के माध्यम से हमेशा नये सामाजिक अनुभवों अौर समाज तथा जीवन से जुड़े ऐसे प्रश्नों को लेकर सामने आते हैं, जिनसे देश की बहुत बड़ी आबादी जूझ रही है। विक्रम मनोरंजन के लिए साहित्य नहीं रचते बल्कि वे पढ़े-लिखे वर्ग को समाज का सही चेहरा दिखाने के लिए लिखते हैं। वे उन सवालों को सामने रखते हैं, जिनसे साक्षात्कार किये बगैर हम एक बेहतर देश या समाज का सपना साकार नहीं कर सकते। अपने नये उपन्यास 'यारबाज' में एक तरफ़ वे मध्यमवर्गीय आबादी के युवा वर्ग की रोजी-रोटी की दिक्कतों को सामने लाते हैं, वही दूसरी तरफ़ मौजूदा शिक्षा व्यवस्था अौर राजनीति पर भी एक बहस खड़ी करते हैं। एक तरफ़ कड़ी मेहनत से पढ़ाई-लिखाई करने के बावजूद एक अदद नौकरी के लिए बहुत सारे नौजवान मारे-मारे फिर रहे हैं, वही दबंगई अौर येन-केन-प्रकारेण सफ़लता राजनीतिक मूल्य के रूप में स्थापित होती जा रही है। हालांकि यह उपन्यास किसी नकारात्मकता को स्थापित नहीं करता बल्कि कथाकार यथार्थ की परतों को उधेड़ते हुए समाज में बची सकारात्मकता अौर मनुष्यता को रेखांकित करता है। इस उपन्यास में जो पात्र राजनीतिक शिखर चढ़ता दिखाई पड़ता है, वह काफी संघर्षशील अौर संवेदनशील युवक है। वह मेहनती है। जीवन में बहुत सारे कष्ट झेलते हुए अौर सबकी मदद करते हुए उसने अपनी जगह बनायी है। एक तरह से वह समाज का सताया हुआ युवक ही है। अपनी सफलता के बावजूद वह अपने बेरोजगार दोस्त की दोस्ती भूल नहीं पाता, स्वयं पहल कर उससे मिलता है। विक्रम सिंह की रचनाशीलता की यही ख़ासियत है कि वे जटिल यथार्थ की रचना करते हुए भी पाठकों को मनुष्यता को बचाने अौर बढ़ाने के लिए प्रेरित करते हैं। एक युवा लेखक के तौर पर यह उनके संदर्भ में ख़ास रेखांकित करने वाली बात है। हम विक्रम सिंह के उज्जवल भविष्य की कामना करते हैं।

योगेश मुंजाल

मैनेजिंग डायरेक्टर एंड चेयरमैन

मुंजाल शोवा लिमिटेड (हीरो ग्रुप)

भाग 1

गाड़ी अपने समय पर ही प्लेटफार्म पर लग गई थी । गर्मियों का दिन था। उस दिन मौसम उमस भरा था । मेरी शर्ट पीठ से बुरी तरह चिपकी हुई थी क्योंकि मेरी पीठ में पसीना पूरी तरह आ चुका था क्योंकि मैंने गाड़ी में सफर भी स्लीपर क्लास में ही किया था। इस वजह से मैं और भी ज्यादा पसीने से तरबतर था क्योंकि मैं एक मध्यवर्गीय परिवार से आता था इसलिए ए.सी में सफर करने की कभी भी सोची नहीं थी। मेरे पिता भी जब भी सफर करते थे स्लीपर क्लास में ही करते थे । यहां तक कि मैंने ए.सी का डब्बा अंदर से देखा भी नहीं था। मेरी पूरी कॉलोनी के सारे लोग मध्यवर्गीय परिवार के ही थे और कभी कोई ए.सी में सफर कर लेता था तो वह बड़े गर्व से कहता था कि भाई ए. सी में सफर कर के आया हूं। और फिर बाद में कॉलोनी में सभी उसके बारे में कहते थे कि साला फेंक रहा है। साला फेकू! कॉलोनी में सभी कोयला खधान में नौकरी करते थे । सबकी मासिक आय भी एक समान थी। हां, पोस्ट के हिसाब से १९- २० का ही फर्क था। सबके रूप रंग भी तकरीबन एक जैसे ही हो गए थे। खास कर जब कोलयारी अर्थात कोयला खधान की शिफ्ट बस जब कॉलोनी आती। सारे कर्मचारी बस से उतरते तो क्या सरदार की पगड़ी, मुल्ले की टोपी और पंडित की चोटी सब कोयले से काले दिखते और सबके कपड़े ग्रिश मोबिल से सने और चेहरे कोयले से लंगूर की तरह काले होते थे। सबके जूते भी एक जैसे होते। उस जूते की एक खास बात थी। जो उन दिनों हमें लगती थी। जूते का आगे वाला हिस्सा छोड़ कर बाकी सारा हिस्सा कपड़े का होता। उसके आगे मोटा चमड़ा लगा होता उस चमड़े के नीचे लोहे की प्लेट लगी होती। हम सब छोटे में उस जूते की चर्चा करते और जूते में लोहे लगे होने पर गर्व सा महसूस करते। कई बार हम सब बच्चे ऐसे पुराने जूते से लोहा निकाल कर देखते अर्थात उसकी पूरी र .न .डी करते। फिर तो ऐसा होने लगा कि लोग पुराने जूते को फेकने के पहले उससे लोहा निकाल रख लिया करते। टीन भागर वाले को बेचने के लिए। जूते में लोहे का होना है उसे विशेष बनाता था। उतरने के बाद मैंने देखा कि स्टेशन खाली खाली है। यह भी नहीं था कि यह कोई छोटा-मोटा स्टेशन था। यह भी मऊ नाथ जंक्शन था। जंक्शन नाम से ऐसा लगा था कि जैसे इस स्टेशन पर बहुत भीड़- भाड़ होगी। क्योंकि कॉलोनी में अक्सर लोग बाग जक्शन के बारे इस तरह बात करते थे कि कोई बहुत भीड़ भाड़ वाला ,बड़ा सटेशन हो जैसे। पर मेरी सोच के विपरीत मुझे देखने को मिला, क्योंकि मैंने आसनसोल जंक्शन स्टेशन से गाड़ी पकड़ी थी जहां काफी भीड़ -भाड़ थी। तब पता चला कि जक्शन लिखा रहने से बड़ा स्टेशन नहीं होता। बड़ा या छोटा शहर होता है, खैर मैं स्टेशन से उतरकर चारों तरफ़ नजर घुमाकर मित्र को ढूंढने लगा। मेरे मित्र से फोन पर कई दफा बात हो चुकी थी। उसने मुझे कहा था कि मैं सही समय पर तुझे लेने आऊंगा। पर मुझे प्लेटफार्म पर मेरा मित्र कहीं भी दिख नहीं रहा था। बस एक दो ११-१२ साल के छोटे-छोटे बच्चे चाय चाय का नारा लगाते हुए चाय बेचने की कोशिश कर रहे थे। मैंने स्टेशन पर एक छोटी सी चाय की दुकान देखी। पर मैं प्लेटफार्म एक पर उतरा था और प्लेटफार्म दो पर चाय की दुकान थी। मैं रेलवे पुल का इस्तेमाल न करके डायरेक्ट नीचे उतर पटरियों को क्रॉस कर चाय की दुकान के पास चला गया। मैंने देखा कि चाय की दुकान पर एक लड़का सोया हुआ है। मैंने उसे हैलो हैलो, जनाब जनाब करके उठा दिया। वह हड़बड़ा कर उठ गया । दुबली पतली देह, चेहरा गोरा, काली मूछें,चेहरे पर हल्की दाढ़ी थी। देख कर लगा कि अभी तक उसके चेहरे पर कभी उस्तरा नहीं फिरा है। उठते ही कहां, के बा हो? यह बिना सोचे कि सुबह का समय है कोई ना कोई ग्राहक चाय पीने ही आया होगा।

" मैंने कहा,"एक कप चाय मिलेगी क्या?"

"क्यों नहीं,अभी मिलेगी। मेरा तो काम ही है चाय देने का।"

"सुबह-सुबह ही तो लोग चाय पीते हैं और आप तो चाय बेचने के समय पर ही सो रहे हैं।"

"स्टेशन में 24 घंटे चाय बिकती है। यहां सुबह शाम कुछ नहीं होता। कोई टेंशन मिटाने के लिए पीता है। कोई टाइम पास के लिए पीता है। कोई सर्दी भगाने के लिए पीता है। तो कोई सुस्ती मिटाने के लिए। वैसे भी मेरे लड़के स्टेशन पर चाय बेच रहे हैं। और फिर सुबह- सुबह के समय नींद भी तो बहुत आती है। फिर जब किस्मत ने चाय बेचना लिख ही दिया है। तो आराम से बेचेंगे। किसी बात की हड़बड़ी थोड़ी है।"

"ठीक है तो फिर बनाइए चाय।"

"बस 5 मिनट रुकिए। बस आपकी चाय तैयार है भाई साहब।"

"भवरेपुर यहां से कितना दूर पड़ता है?"

उसने मेरे सवाल का जवाब ना देकर उल्टा मुझसे ही सवाल पूछ लिया,"किसके घर जाना है?"

"श्याम लाल यादव के घर जाना है।"

"ओहो श्यामलाल नेता जी के घर जाएंगे।"

पहले -पहल नेताजी सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कहीं गलत आदमी से मुखातिब तो नहीं हो रहा। आखिर यह क्या बात हुई "आप जानते हैं क्या उसको?"

"अरे ,महाराज! हमार रिश्तेदार हवे।"

उसने मुझे ऐसे कहा जैसे वह मेरा कितना पुराना मित्र हो या फिर मुझे ना जाने कितने सालों से जानता हो। फिर उसने मुझसे पूछा,"आपका नाम राजेश है ना?"

"जी हां,पर आपको कैसे पता?"

"श्याम ने बताया था कि वह कल सुबह आएगा। उसने बताया था कि आप आ रहे हैं आप उनके बड़े खास मित्र हैं अर्थात लंगोटिया यार है।" यह कह वह मुस्कुराया।

"पर अभी तक तो आया नहीं ,मुझे तो कहीं दिख नहीं रहा।"

"आ रहा होगा ,जरूर आएगा।"

फिर उसने नज़र घुमा कर मुझे इशारा करते हुए कहा कि वह देखिए श्यामलाल आ रहा है। फिर मजाक मजाक में यह भी कह डाला,नाम लो और सेतान हाजिर।

मैंने नज़र घुमा कर देखा तो सचमुच श्याम लाल आ रहा था । वह जैसा कॉलोनी में था,वैसा ही गांव में भी था। उसने सिंपल सी पेंट और शर्ट और पैरों में प्लास्टिक की चप्पल पहन रखी थी। वह भी देखने में ऐसी लग रही थी जैसे कितने दिनों से धोई नहीं गई है। जैसे ही पास आया चाय वाला मजाकिया अंदाज में उसे सलाम करते हुए कहा ,"नेताजी सलाम"श्याम ने उसकी तरफ बिना देखे मेरे पास आकर कहा,"और राजेश कैसे हो?"

"मैं ठीक हूं ,अपनी सुनाओ।"

"मैं भी ठीक हूं। आने में कोई दिक्कत तो नहीं हुई।"

"रात को सो गया। कब सुबह मऊ पहुंच गया पता ही नहीं चला।"

तब तक चाय वाले ने चाय तैयार कर के दो मिट्टी के प्यालों में चाय डाल कर सामने रख दी। चाय रखते हुए कहा," हई ल हो चाय तैयार हो गईल।"

श्याम ने कहा," मैं चाय नहीं पीऊंगा।"

मैंने कहा,"पी लो इतने प्रेम से बनाया है तुम्हारे लिए।"

चाय वाले ने कहा,"भाई यह दूध पीने वाला आदमी है। चाय कहां इसको रास आएगी। जात के अहीर है।"

"श्याम ने कहा -" तुम कौन से राजपूत हो।तुम भी तो अहीर हो। चलो ठीक है चुप रहो चाय पी लेता हूं।" इतना कह श्याम ने चाय का गिलास उठा लिया।

श्याम ने मुझसे पहले ही चाय पी ली और प्लास्टिक के डस्टबिन में प्याले को फेंक दिया। जबकि मैं अभी चुस्कियां ले -ले कर चाय पी रहा था । उसके इतनी जल्दी चाय पी लेने से मुझे ऐसा लगा कि जो कभी चाय नहीं पीता वह इतनी जल्दी चाय पीकर प्याले को फेंक दिया कैसे और प्रतिदिन जिसकी होशोहवास बिना चाय के सही नहीं होती है वह अभी तक चुस्कियां ले- ले कर चाय पी रहा है। मगर तभी चायवाले मित्र ने पूछा," का हो चाय बढ़िया ना लगल का। तब मुझे एहसास हुआ कि वाकई में इसे चाय पसंद नहीं है इसीलिए चाय को जल्दी ही गट-गटकर पी गया । खैर मैंने भी आखिरकार चाय पी ली और प्याले को उसी डस्टबिन में फेंक दिया। फिर मैं अपने पिछले पॉकेट से पर्स को जैसे ही निकालने लगा कि श्यामलाल ने कहा," यार रहने दो, रहने दो कोई जरुरत नहीं है इसकी। फिर श्यामलाल ने चाय वाले लड़के से कहा," अच्छा बबलू! अब मैं चल रहा हूं, कभी गांव आओ मेरे भी।"

"फ़ुरसत मिलते ही आता हूं मैं।"

फिर श्याम मुझे रेल फाटक के पीछे से जहां शहर का कूड़ा फेका हुआ था। सूअर वहा मुंह मार रहे थे। उस रास्ते से पैदल लेकर चलने लगा। पहली नजर में मुझे शहर पसंद नहीं आ रहा था। आखिर मुझे शहर क्यों पसंद नहीं आ रहा था मैं यह सोचकर तो आया नहीं था कि मैं ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका घूमने आया हूं। इसका जवाब मेरे पास खुद नहीं था।

.....

मैं और श्यामलाल स्टैंड पर खड़े हो गए थे। स्टैंड क्या था? बस वहां पीछे की तरफ एक माताजी का मंदिर था और उसी मंदिर के पास गाड़ियां रूकती थीं और ठीक रोड की दूसरी तरफ कुछ ठेले वाले फल और सब्जियां बेच रहे थे। ठेले वालों के पास भी ग्राहकों की कुछ खास भीड़ नहीं थी। मैं ज्यादातर लोगों को साइकिल से आते जाते देख रहा था। उन सब के पहनावे भी कुछ खास नहीं थे। सबने साधारण पेंट शर्ट और पैरों में स्लीपर (चप्पल) पहन रखी थी। कुछ लोगों के चपलें भी एड़ी से घिस गई थी। ऐसा लग रहा था कि जैसे चप्पल के फितो को कई बार बदला गया हो। कुछ बुजुर्ग ने सफेद धोती कुर्ता पहन रखी थी। वह भी नाम की सफेद रह गई थी। सफेद कुर्ता धोती मिट्टी के रंग में तब्दील हो चुका था। स्टैंड में कई स्कूल कॉलेज के स्टूडेंट और कुछ मुस्लिम महिला और लड़कियां बुर्का पहन कर खड़ी थीं। सही मायने में जितनी तदात में हिन्दू दिख रहे थे उतने ही तादाद में मुस्लिम भी। मुस्लिम ठेले वाले के यहां हिन्दू खड़े थे। हिंदू पान दुकान के पास मुस्लिमो की भीड़ थी। देख कर ऐसा लग रहा था। आपस में भाई चारा है। यह आम लोग भी राजनीति की हाथो चड गए थे। इस वजह से मऊ से आजमगढ़ अलग कर दिया गया था। उसी वक्त एक दुबला -पतला साधारण कद काठी का लड़का खैनी मलते हुए श्याम के पास आया था । लड़का श्याम के पास आकर कहता है ,"कैसे हो श्याम?"

"मैं तो ठीक हूं, अपनी सुनाओ।"

लड़का हाथ से खैनी फटक कर श्याम के हाथ में थोड़ा खैनी देता है लड़का अपने मुंह में खैनी दवा लेता है। श्याम भी अपने मुंह में खैनी दवा लेता है। मैं यह देखकर बहुत ही आश्चर्यचकित हो गया, क्योंकि मैं जिस श्याम को जानता हूं वह खैनी, सिगरेट, बीड़ी कभी नहीं पीता था। खैर वह तो चाय भी नहीं पीता है । अभी मैं यह सब सोच रहा था कि लड़के ने श्याम से कहा," ऐसा है अपने कॉलेज के चुनाव में यादव भाई राहुल को जिताना है। राजपूतों को एकदम नीचे गिराना है। चुनाव जीतने के लिए हरिजन जाति के लोगों को साथ में मिलाना है। हमेशा हरिजन जाति के लोगों की लड़ाई हमेशा ही राजपूतों से होती है।" उसकी बात सुनकर मुझे लगा कि जातिवाद में इसने पीएचडी कर रखी है।

"अपने क्लास में बहुत दोस्त अनुसूचित जाति के हैं,सभी मेरे मित्र हैं। चिंता का बात नहीं है। बाकी मूला भाई तो हम सब के साथ तो है ही।

" एक दम सही। कुछ बनिया सिंदी भाई को भी मिला कर रखना। ठीक है सब को मिलाकर रखना ,अच्छा कॉलेज जा रहे हैं। समय हो गया है।"

"ठीक है निकलो ,अपना भी कमांडर आ गया।"

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